प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA-I) सरकार ने 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त किया था। यह भारतीय राजनीति के सबसे चर्चित और नाटकीय घटनाक्रमों में से एक था।

विश्वास मत की आवश्यकता क्यों पड़ी?

इस विश्वास मत का मुख्य कारण भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता (Indo-US Civil Nuclear Deal) था।

  1. वाम दलों का विरोध: मनमोहन सिंह सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे वामपंथी दलों (मुख्य रूप से CPI और CPI(M)) ने इस परमाणु समझौते का कड़ा विरोध किया। उनका तर्क था कि यह समझौता भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को अमेरिकी प्रभाव में लाएगा।

  2. समर्थन वापसी: जब सरकार इस समझौते को लेकर आगे बढ़ी और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के पास जाने का निर्णय लिया, तो वाम दलों ने जुलाई 2008 में सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया।

  3. अल्पमत में सरकार: वाम दलों के 59 सांसदों के समर्थन वापस लेने से यू.पी.ए. सरकार लोकसभा में अल्पमत में आ गई, जिससे उसे सदन में अपना बहुमत साबित करने के लिए विश्वास मत लाना पड़ा।

विश्वास मत का परिणाम

दो दिनों की तीखी बहस के बाद 22 जुलाई 2008 को मतदान हुआ। सरकार को बहुमत के लिए 272 वोटों की आवश्यकता थी।

  • पक्ष में वोट: 275

  • विपक्ष में वोट: 256

  • अनुपस्थित: 10

इस प्रकार, मनमोहन सिंह सरकार 19 वोटों के अंतर से विश्वास मत जीतने में सफल रही। इस जीत में समाजवादी पार्टी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने पहले विरोध करने के बाद सरकार के पक्ष में मतदान करने का निर्णय लिया।

"कैश-फॉर-वोट" कांड

यह विश्वास मत "कैश-फॉर-वोट" (वोट के बदले नकद) कांड के कारण भी काफी विवादों में रहा। मतदान के दौरान, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के तीन सांसदों ने संसद में नोटों की गड्डियां लहराते हुए आरोप लगाया कि उन्हें सरकार के पक्ष में वोट देने या मतदान से अनुपस्थित रहने के लिए रिश्वत दी गई थी। इस घटना ने भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार किया और इसकी जांच के लिए एक संसदीय समिति का गठन भी किया गया।

इस जीत के बाद, सरकार ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को अंतिम रूप दिया, जिसे डॉ. मनमोहन सिंह की एक बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक सफलता माना जाता है।

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